यूँ तो हम सुबह से
उठ कर दिन भर में अनेकों झूठ बोलते हैं, पर संसार
में कुछ झूठ व्यावहारिक भी होते हैं और उनमें से सबसे बड़ा झूठ है “मैं तुम्हारा दर्द
समझता हूँ।“ कहने वाला भी जानता है और सुनने वाला भी कि ये एक झूठ ही है फिर भी जाने
कितनी बार कहा जाता है और सुना जाता है। ऐसा नहीं कि हम ‘दर्द’ नहीं समझते पर सच ये भी है कि हम किसी और का दर्द नहीं समझ सकते।
ललित कुमार की पहली
किताब “विटामिन जिंदगी” उनके जीवन की संघर्ष गाथा है जिसे उन्होंने शब्दबद्ध किया है।
ऐसा संघर्ष जो उनके जीवन में चार वर्ष की आयु से आरंभ हुआ और लगातार चलता ही आ रहा
है। इस किताब को अच्छी, बुरी या ठीक है कि श्रेणी
में नहीं रखा जा सकता। ये किताब केवल एक कहानी नहीं है, ये जीवन
है ललित कुमार का और किसी के जीवन पर प्रतिक्रिया देने वाले हम कौन हो सकते हैं।
ये कहानी उनकी बैसाखियों
के शब्दों से आरंभ होती है जो उनके साथ बचपन से हैं। उन्हीं के साथ बड़ी हुई हैं और
बराबर साथ निभाती चली आ रही हैं। चार वर्ष की आयु में एक हृष्ट-पुष्ट बालक अचानक गंभीर
रूप से बीमार पड़ता है और पोलियो की चपेट में आ कर अपने जीवन का संतुलन खो बैठता है।
ललित कुमार की शारीरिक पीड़ा, मानसिक पीड़ा, आर्थिक पीड़ा, सामाजिक पीड़ा पढ़ते हुए कई स्थानों पर मैं
फफक पड़ी। ऐसा नहीं कि मुझे उनके दर्द का एहसास हो पाया था बल्कि ये स्थान वो थे जहां
उन्होने हर पीड़ा से लड़ कर, जूझ कर अपने जीवन में कोई उपलब्धि हासिल की थी।
पोलियो से लड़ना, शरीर के निचले भाग का बेजान हो जाना, कमर से नीचे के
हिस्से का आड़ा-टेड़ा हो जाना, हर प्रकार के उपचार की पीड़ा में
भयंकर दर्द को झेलना, चौपाया बन कर घसिटना, केलीपर की तकलीफ झेलना, और उस पर लगातार सहपाठियों, समाज यहाँ तक कि अध्यापकों के लिए उपहास पात्र बने रहना। ये सब इस किताब में
ललित कुमार की ज़ुबानी पढ़ने के बाद एक बार नहीं अपितु कई-कई बार मेरे मन में ये विचार
आते रहे कि हम अक्सर कितनी शीघ्रता से निराश हो जाते हैं, अवसाद
में चले जाते हैं, खुद को हारा हुआ महसूस करते हैं। जबकि हमारे
कष्ट या अभाव किसी और की तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं हैं। ललित जी ने प्रत्येक पीड़ा और
अभाव के साथ संघर्ष करते हुए न केवल स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया बल्कि अब वो राष्ट्रीय
पुरस्कार से सम्मानित एक रोल मॉडल भी हैं।
ललित जी की कहानी
में सबसे अच्छी और सुखद बात है कि उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य ने उनके प्रति जो
समर्पण दिखाया और प्रेम प्रदर्शित किया वो यदि उनके साथ नहीं होता तो उनके जीवन में
कुछ नहीं होता। जब जीवन में कोई आशा बाकी नहीं रह जाती तो माता-पिता भी एक स्थान पर
आकर थक जाते हैं, अन्य परिवारिजन भी साथ छोड़
देते हैं। पर ललित जी के साथ ऐसा नहीं हुआ। इस बात के लिए वो ईश्वर का बहुत धन्यवाद
करते हैं कि उन्हें ऐसा परिवार मिला जो उनकी पीड़ा में उनके साथ रहा। बस पूरी बात में
मैं एक विचार से सशंकित रही कि यदि ललित बेटा ना हो कर बेटी होते तो भी क्या उनका जीवन
ऐसा ही होता। मैं उनके परिवार पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रही हूँ। बस ये मेरी आशंका है
क्यूंकी मैंने भी कई बेटियों को ऐसी तकलीफ़ में देखा है जहाँ उनके घरवालों ने उन्हें
विकलांग आश्रम में या सरकार के सहारे छोड़ रखा है। चूँकि ये सत्य है कि बेटी का जीवन
और अधिक कठिन होता और यदि परिवार आर्थिक तंगी से गुज़रता हो तो उसके सामने रास्ते बंद
हो जाते हैं।
ललित जी के जीवन से
सीखने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि उन्होंने अपने शरीर की अक्षमता के आगे अपने
मस्तिष्क को इस प्रकार मज़बूत किया कि न केवल सतत अधध्यन करते रहे, अच्छे नंबरों से पास होते रहे और कभी भी किसी से भी सहारे की आकांक्षा नहीं
की। कई किलोमीटरों पैदल चलना, बैसाखी की चोट खाते रहना, गिरना फिर उठना और चल देना। विग्कलांगता के सरकारी लाभ न उठाना, व्हीलचेयर का प्रयोग ना करने और अधिक से अधिक आत्मनिर्भरता लाने के उनके कठोर
प्रयास उनके जीवन की गाथा को प्रेरणादायक बनाते हैं। यू.एन.ओ से जुड़ना और फिर सोवियत
संघ के लिए भी कार्य करना, कई देश घूम आना और चीन की दीवार पर
भी अपनी उन्हीं बैसाखियों के साथ चढ़कर लौट आना, एक स्वप्न जैसा
ही है, जो ललित कुमार ने न केवल देखा अपितु जिया भी।
हालांकि इस किताब
में और बहुत कुछ है पर यदि सब कुछ लिखने बैठी तो एक और किताब बन जाएगी। इससे बेहतर
है कि मैं अपनी बात यहीं ख़त्म करूँ। किताब के आरंभ में ललित कुमार ने लिखा है कि उन्हें
लगता था कि उनके जीवन की गाथा कोई क्यूँ पढ़ेगा। सोच उचित है। पर अब जब ये जीवन गाथा
शब्दबद्ध हो कर किताब के रूप में प्रकाशित हो चुकी है और जो भी इसे पढ़ रहा है उसके
लिए ये प्रेरणादायक सिद्ध होगी। छोटी से छोटी वस्तु और घटनाओं का आंकलन करना जीवन के
लिए कितना लाभदायक हो सकता है ये आप इस किताब को पढ़ कर समझ पाएंगे।
तो बस ललित कुमार
की जिंदगी से थोड़ा विटामिन लीजिये और जीवन जीना सीखिये........
नोट: ये किताब का
रिवियु नहीं है ये बस मेरे विचार हैं जो मैंने इस किताब को पढ़ते वक़्त अनुभव किए। ये
किताब असल में ललित जी का जीवन है और इसका रिवियु करने की क्षमता किसी में नहीं और
होनी भी नहीं चाहिए। किताब को amazon.in से खरीद कर पढ़ा जा सकता है।