सोमवार, 20 जनवरी 2020

स्व-प्रकाशन एक भूल


जिस प्रकार एक डॉक्टर के लिए डिग्री लेने के बाद इलाज करना आवश्यक है, जिस प्रकार एक वकील के लिए प्रेक्टिस करना ज़रूरी है, जिस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र के व्यक्ति को उसके संबन्धित क्षेत्र में योगदान देना आवश्यक है उसी प्रकार एक लेखक के लिए लिखने के बाद उसका प्रकाशित होना आवश्यक है। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी-अपनी सीमाएं और कठिनाइयाँ होती हैं। लेखन के क्षेत्र में भी हैं। लिख कर उसे प्रकाशित करा पाना और उस प्रकाशित सामग्री को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचा पाना टेढ़ी खीर है। ये लेख सभी नए लेखकों के लिए है जो अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए अधीर हैं। आशा करती हूँ कि मेरे अनुभव आपको उचित मार्ग दिखाएंगे।

तीन वर्ष पूर्व तक मेरा लेखन से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं था। बस कुछ कवितायें लिख लिया करती थी। फिर हवा के एक झोंके की तरह जीवन परिवर्तित हो गया और मैं फ़ौजदारी की वकालत छोड़ पूरी तरह से लेखन में डूब गयी। पहले एक वेबसाइट के लिए कुछ लेख लिखे जिसका तय परितोषिक आज तक नहीं मिला। फिर ब्लौग्स लिखे और फिर बात उपन्यास लिखने तक पहुँच गयी। मेरा पहला उपन्यास “विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)” किताब के रूप में पिछले ही वर्ष स्व-प्रकाशन के माध्यम से प्रकाशित हुआ।

जब कहानी लिखनी शुरू की थी तो उसे किताब के रूप में प्रकाशित करवाने जैसा कोई विचार मन में नहीं था। पर कहते हैं हर चीज़ की शुरुआत कहीं से तो होती ही है और “There is always a first time for everything”। तो बस कहानी पूरी हुई और मन अधीर हो गया। लगने लगा कि ये लेपटॉप में पड़े-पड़े सड़ ना जाए। कोई पढ़ेगा ही नहीं तो लिखने का फायदा क्या? इसी अधीरता में मैंने गूगल सर्च किया और मुझे सेल्फ़ पब्लिकेशन या स्व-प्रकाशन के कई लिंक्स मिल गए। मुझे उस समय तक इस क्षेत्र के बारे में ज़रा भी पता नहीं था। मुझे नहीं पता था कि स्व-प्रकाशन ही एक अकेला माध्यम नहीं है। मैंने इस क्षेत्र से संबन्धित किसी भी व्यक्ति से चर्चा नहीं की और जिस पब्लिकेशन का लिंक सर्वप्रथम गूगल ने दिखाया उसकी वेबसाइट खोल डाली।

एक सुंदर सी वेबसाइट, 100% रॉयल्टी का वादा, हाइलाइट होते हुए ढेर सारे बेनेफिट्स और एक सो-कॉल्ड रीज़नेबल सा पेकेज जैसा कुछ सामने चमका और मेरी मत मारी गयी। मेरे दिमाग में बैठा हुआ था कि किताब छपवाने के लिए पैसा खर्च करना ही पड़ता है। इसलिए मुझे सबकुछ बहुत आकर्षक और उचित लगा। यकीन मानिए कि एक बार आप ऐसी सुंदर वेबसाइट्स का मुआयना कर लीजिये और कहीं गलती से भी अपना ईमेल या फोन नंबर छोड़ दीजिये तो आप उनके लुभावने प्रलोभनों से बच नहीं पाएंगे और ये आपको अपने चंगुल में लपेट के ही मानेंगे।

अब होता क्या है? आपको लगता है आपने बढ़िया पैसा खर्च कर दिया और किताब छपवा ली तो आप प्रसिद्ध लेखक बन गए। पर मैं ये साफ कर दूँ कि पैसा ले कर किताब छापने वाले प्रकाशक का आपकी किताब की बिक्री से कोई संबंध नहीं होता। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी किताब की कितनी प्रतियाँ बिकीं या एक भी न बिके। उसकी ओर से किताब के लिए किसी तरह का प्रमोशन नहीं होता। आपके कांट्रैक्ट के अनुसार किताब छप कर ऑनलाइन पोर्टल्स पर उपलब्ध अवश्य हो जाएगी पर उसे लोगों तक कैसे पहुंचाना है वो पूरी तरह से आपका सिर दर्द है। अब यदि आपकी पहले से ही कोई पहचान नहीं है और आपके पास एक बना बनाया पाठक वर्ग नहीं है तो आपकी किताब को लाखों किताबों के बीच खोने में अधिक वक्त नहीं लगेगा।

स्व-प्रकाशन मेरे लिए किसी भूल से कम नहीं था जो मैंने एक नहीं दो बार दोहराई क्यूंकी मैंने पहली किताब से ही सबक नहीं लिया और मेरी अधीरता समाप्त नहीं हुई थी। कई वर्षों की मेहनत थी तो दोनों किताबों को दो माह के अंतर से ही छपवा दिया। खर्च किए गए पैसे के अनुसार मेरे प्रकाशक ने किताब छाप कर, आईएसबीएन नंबर और कॉपीराइट्स की औपचारिकता निभा कर किताब ऑनलाइन पोर्टल्स पर बिक्री के लिए डाल दी। मेरे लिए वेबसाइट, ईबुक और किताब का वीडियो ट्रेलर भी बना दिया। पर बस जितना तय था और जिस काम के लिए पैसा दिया गया था प्रकाशक ने किया। किताब को कैसे बेचना है इसके बारे में ना तो मुझे कोई जानकारी थी न ही मेरे पास कोई तरीका। प्रकाशक ने किताब के प्रमोशन के कई तरीके बताए और ऑफर रखे। हर ऑफर में कम-से-कम लागत पाँच हज़ार थी। दिल्ली की ऑक्सफोर्ड लाइब्रेरी में किताब एक माह तक रखने के लिए 3000 रुपये। फेसबुक या इंस्टाग्राम पर 7 दिन के प्रमोशन के 5000+ रुपये। किताब का विमोचन, अखबारों में लेख या इंटरव्यू इत्यादि के 20000+ रुपये। यहाँ तक कि दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में किताब रखने के भी 6000 रुपये। ऑक्सफोर्ड लाइब्रेरी वाले विकल्प के अलावा मैंने कोई भी प्रमोशन विकल्प नहीं चुना।

पूरी बात का लब्बोलबाब ये है कि यदि आप धन सम्पन्न हैं और आपके पास फेंकेने के लिए बहुत सारा धन है तो आप अपनी एक ही किताब पर लाखों रुपये खर्च कर सकते हैं। चूंकि जो दिखता है वही बिकता है तो जब तक आपकी किताब लोगों को दिखेगी नहीं तो बिकेगी कैसे। आप अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से एक सीमा तक ही किताब का प्रमोशन कर सकते हैं। किंडल के ज़माने में वैसे भी किताब खरीद कर पढ़ने वालों की कमी है।           
   
मेरी दोनों ही किताबों को बहुत चर्चा और पाठक नहीं मिले। हालांकि जितने मिले उन्होने प्रशंसा और उत्साहवर्धन ही किया। दो गलतियाँ एक साथ करने के बाद और इस क्षेत्र से जुड़े कुछ अन्य गणमान्य लोगों के संपर्क में आने बाद कुछ सबक मिले। पता चला कि बहुत सारे प्रकाशन ऐसे भी हैं जो लिखा हुआ पसंद आ जाने पर बिना एक पैसा लिए भी उसे छापते हैं और उसे बेचने के लिए भरसक प्रयास भी करते हैं। इसे रेगुलर पब्लिकेशन कहते हैं।

स्व-प्रकाशन का सबसे बड़ा नुकसान मुझे ये हुआ कि मेरे माथे पर ये लिख गया कि मैं एक स्व-प्रकाशित लेखिका हूँ और जिसका सीधा अर्थ निकलता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कैसा और क्या लिखती हूँ। कुछ भी लिखूँ, कैसा भी लिखूँ पैसा खर्च कर के प्रकाशित करवा सकती हूँ। ये तमगा जो मुझे अधीरता के कारण मिला है वो किसी श्राप से कम नहीं है। मैं अपनी तीसरी किताब के लिए जो एक कहानी संग्रह है, रेगुलर प्रकाशक तलाश रही हूँ और कई प्रकाशनों से संपर्क में आने के बाद कुछ उत्तर मिले और वो ये थे “आपकी कहानियाँ अच्छी हैं पर आप हमारे स्व-प्रकाशन विभाग से संपर्क कर सकती हैं।“

ये निराशाजनक है। पर जैसा मैंने पहले भी कहा हर क्षेत्र की अपनी कठिनाइयाँ होती हैं जिन्हें कैसे ना कैसे भी पार करना ही होता है। मैंने भी निश्चय किया है कि अब प्रकाशकों से संपर्क करती रहूँगी जब तक कोई मेरी रचना छापने को तत्पर ना हो जाए या फिर मुझसे ये ना कह दे कि आपकी रचनाएँ प्रकाशित होने लायक नहीं है। मेरी लेखक के रूप में कोई खास पहचान नहीं है ना ही मेरे पास एक बड़ा पाठक वर्ग है। पर अब स्व-प्रकाशन मेरा मार्ग कभी नहीं होगा।

नोट: 100% रॉयल्टी एक भ्रम है इसमें कभी ना फंसे।