बुधवार, 5 सितंबर 2018

शिक्षक जो कारक बने परिवर्तन का


महान शिक्षक जो लाये शिक्षा के क्षेत्र मे परिवर्तन
“किमत्र बहुनोक्त्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।
दुर्लभा चित्त विश्रांति: विना गुरुकृपाम परम।।“

बहुत कहने से क्या? करोड़ो शास्त्रों से भी क्या? चित्त की परम शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है। हर व्यक्ति के अंदर एक शिक्षक और एक शिक्षार्थी होता है। एक अच्छा शिक्षार्थी ही आगे चल कर एक निपुण शिक्षक बन सकता है। हमारे जीवन मे शुरू से अंत तक 5 गुरुओं की भूमिका रहती है। प्रथम माँ, द्वितीय पिता, त्रितीय भौतिक गुरु, चतुर्थ समाज और पंचम आध्यात्मिक गुरु। जीवन ऐसे ही गुज़रता है शिक्षा माँ से प्रारम्भ हो कर आध्यात्मिक गुरु तक चलती ही रहती है। ज्ञानार्जन कभी समाप्त नहीं होता। शरीर के भीतर की विभिन क्रियाओं के प्रकार ही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया श्वास चलने तक निरंतर चलती ही रहती है।

इस बार शिक्षक दिवस पर आइये उन शिक्षकों के बारे मे जाने जो शिक्षा के क्षेत्र मे क्रांतिकारी परिवर्तन ले के आए:

सावित्री बाई फुले:
1831 नाएगाँव, महाराष्ट्र मे जन्मी सावित्री बाई फुले इतिहास मे एक ऐसा कीर्तिवान नाम है जिनका शिक्षा के क्षेत्र मे अत्यंत महत्वपूर्ण और अतुलनीय योगदान रहा है। 1840 मे 9 वर्ष की आयु मे 12 वर्षीय ज्योतिराव फुले से ब्याही गयी सावित्री ने अपना जीवन सभी सामाजिक मुश्किलों से इतर अपने पति के सहयोग से न केवल अपनी बल्कि अन्य लड़कियों की भी शिक्षा और उन्नति मे समर्पित कर दिया। पति-पत्नी दोनों ही उस समय की रूढ़िवादी मानसिकता से बिलकुल अलग थलग प्राणी थे। उस समय छोटी उम्र मे बेटियाँ दुगनी-तिगनी उम्र वाले पुरुषों को ब्याह दी जाती थी इसी कारण वे जल्दी विधवा हो जाती थी और फिर उनका जीवन नारकीय हो जाता था। ऐसे समय मे ज्योतिराव ने अपनी पत्नी सावित्री को ऐसे पढ़ाया कि वो एक शिक्षक की भांति तयार हो सकें और अन्य स्त्रियॉं को पढ़ा सकें। उस समय उनके इस क्रांतिकारी कदम के कारण उन्हे अपने पिता का रोष झेलना पड़ना और घर छोड़ना पड़ा।
उस युग मे जहां कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था वहाँ ज्योतिराव ने एक गर्भवती स्त्री को अत्महत्या करने से बचाया और उसके बच्चे को अपना नाम देने का वचन दिया। बाद मे ज्योतिराव और सावित्री ने उस बच्चे को गोद ले लिया। आगे चल कर सवित्रीबाई को शिक्षा के क्षेत्र मे योगदान के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा सम्मानित भी किया गया।

चाणक्य:
नन्द वंश का नाश कर चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट बना के अखण्ड भारत का निर्माण करने वाले आचार्य चाणक्य से कौन अपरिचित है। 375 ईसा पूर्व तक्षिला के पास किसी गाँव मे जन्मे इस महान ब्राहमण ने अपनी शिक्षा तक्षिला विश्वविद्यालय से प्राप्त की और उसके बाद वहीं आचार्य के रूप मे शिक्षार्थियों को अपना ज्ञान बांटा। अपने महान ग्रंथ “अर्थशास्त्र” के माध्यम से चाणक्य ने देश की राजनीति को एक नया आयाम दिया। पहले चंद्रगुप्त फिर बिन्दुसार और फिर अशोक को मार्गदर्शित करते रहे और अपना पूरा जीवन अपनी शिक्षा और नीतियों के प्रसार मे लगा दिया। चाणक्य हर विषय के ज्ञाता थे। विष्णुगुप्त सिधान्त नाम का एक ज्योतिष ग्रंथ और आयुर्वेद पर वैद्यजीवन भी इनकी कृतियाँ हैं। चाणक्य की नीतियाँ आज भी कारगर हैं और प्रयोग की जाती हैं।

मारिया मोंटेसरी:
इटली की महान हस्ती 31 अगस्त 1870 को पैदा हुई मारिया मोंटेसरी एक चिकित्सक और शिक्षाशास्त्री थी। जिनके नाम से शिक्षा की “मोंटेसरी पद्धति” प्रसिद्ध हुई। इनहोने अपनी शिक्षा रोम मे प्राप्त की और 1894 मे इनहोने रोम विश्वविद्यालय मे medical की पढ़ाई अपने पिता के विरोध के बाद भी पूरी की। चिकित्साशास्त्र की शिक्षा उपाधि पाने वाली ये पहली महिला थीं। इन्होने अपना पूरा जीवन मंद बुद्धि बच्चो की चिकित्सा और देखभाल मे समर्पित कर दिया। मोंटेसरी ने एक पद्धति तयार की “मंद बुद्धि एवं संबन्धित दोषो का शिक्षा द्वारा उपचार” जिसके द्वारा उन्होने शिक्षक तयार किए जो मंदबुद्धी बलकों का न केवल उपचार कर सके बल्कि उनको सामान्य जीवन जीने मे सहयोग भी कर सके। सन 1939 मे ‘”अंतर्राष्ट्रीय मोंटेसरी संघ” की स्थापना हुई और डॉ मोंटेसरी जीवनपर्यंत इसकी प्रधान बनी रहीं।

रामकृष्ण परमहंस:
18 फरवरी 1836 को बंगाल के एक ग्राम मे पैदा हुए रामकृष्ण परमहंस को विष्णु का अवतार माना जाता है। उनका मन कभी अध्ययन या अध्यापन में नहीं लगा और वे अधिक शिक्षित भी नहीं थे और दक्षिणेश्वर काली मंदिर मे अपने बड़े भाई के साथ मंदिर और देवी की सेवा करते थे । परमहंस मानवीय मूल्यों के पोषक थे। ईश्वर और साधना मे लीन रहने वाले रामकृष्ण को विवेकानन्द ने अपना गुरु मान लिया था। उनके नरेंद्र दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने की राह मे रामकृष्ण परमहंस की अहम और महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। परमहंस के आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों की ख्याति इस प्रकार फ़ैल गयी थी कि बड़े-बड़े विद्वान जैसे नारायण शास्त्री, पंडित पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरिकान्त तारकभूषण उनसे आध्यात्मिक ज्ञान एवं प्रेरणा प्राप्त करने आते थे।

सुक्रात:
सुक्ररात उन दर्शनिकों मे से थे जिन्हे सूफियों की तरह शिक्षा और आचार द्वारा उधारण देना भाता था। सुक्ररात ने कहा, “सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए”। एथेंस मे एक बेहद गरीब परिवार मे जन्म लेने वाले सुकरात एक महान और ख्यातिप्राप्त विद्वान थे। “ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं है” जैसा विचार रखने वाले सुकरात के जीवन के दो ही परम लक्ष्य थे पहला ज्ञान का संग्रह और दूसरा ज्ञान का प्रसार। उनका दर्शन और यतार्थवाद समाज को स्वीकार्य नहीं था इसी कारण उन पर नवयुवको को पथभ्रष्ट करने और ईशनिन्दा करने का आरोप लगाया गया और उन्हे दण्ड स्वरूप विष का प्याला पीने को कहा गया। उनके शिष्यों और प्रशंसको ने उनसे कारगर से भाग जाने का भी आग्रह किया परंतु उन्होने उसे अस्वीकार कर प्रसन्नता के साथ विष का प्याला अपने हाथों से पी कर मृत्यु प्राप्त की।

अरस्तू:
प्लेटो के शिष्य, सिकंदर के गुरु महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने भौतिकी, अध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र और जीव विज्ञान समेत कई विषयों पर अपनी रचनाएँ लिखी। बौद्धिक शिक्षा केंद्र एथेंस मे 20 वर्षों तक अरस्तू ने प्लेटो के अधीन शिक्षा प्राप्त की। अरस्तू उन महान दर्शनिकों मे से एक रहे हैं जो परम्पराओ के अधीन नहीं थे और किसी भी घटना को बिना जाँचे परिणाम तक पहुँचना उनके स्वभाव मे नहीं था। सिकंदर की शिक्षा अरस्तू के द्वारा पूर्ण हुई। मानव स्वभाव से जुड़े विषयों पर खोज करना अरस्तू का प्रिय कार्य था। अरस्तू ने “Politics”, “Yudemiyan ethics”, “Problems”, “History of Animals” इत्यादि अन्य कई ग्रंथ लिखे हैं।

द्रोणाचार्य:
एक द्रोण (पत्तियों से बना एक बर्तन) से जन्मे द्रोणाचार्य जो भारद्वाज ऋषि के पुत्र माने जाते है को संसार सभी अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता और कौरव-पांडवों के आचार्य के रूप मे जानता है। द्रोणाचार्य अवश्य ही एक निष्ठावान शिक्षक थे पर महान नहीं क्यूंकी उन्होने सदेव अपने शिष्यों के मध्य भेद भाव किया। अर्जुन को प्रिय माननेवाले द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर मे राजकुमारों का गुरु बनना इस कराण स्वीकारा क्यूंकी वे ध्रुपद नरेश से प्रतिशोध लेना चाहते थे और उन्हे एक सम्पूर्ण सुख सुविधाओं वाला जीवन चाहिए था। अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने वाले आचार्य द्रोण का एक मात्र लक्ष्य था अर्जुन के द्वारा ध्रुपद नरेश का वध करा अपना प्रतिशोध पूर्ण करना। इसी कारण उन्होने अपने सच्चे और निष्ठावान शिष्य और भक्त एकलव्य को धनुर्विद्या देने से मना कर दिया और जब उसने उनकी प्रतिमा बना कर उससे ही शिक्षा ग्रहण कर ली तो गुरुदक्षिणा मे उसके सीधे हाथ का अंगूठा काट कर देने को कहा।
द्रोणाचार्य ने युद्ध के अनेकों नियम बनाए थे जिसका पालन करना सभी के लिए अनिवार्य था परंतु “महाभारत” के युद्द मे सभी नियम तोड़े गए और द्रोण ने स्वयं सारे नियमों का उल्लंघन करते हुए अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को छल से मृत्यु दी।

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