शनिवार, 27 जुलाई 2019

मेरी पहली किताब- विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)


हर लेखक के लिए उसकी पहली किताब पहले प्रेम के समान होती है। प्रथम प्रेम के समान निश्छलता, कोमलता, आधा-अधूरा सा पन, अनगढ़ सा कुछ अपने अंदर समेटे हुए। मेरे लिए भी मेरी पहली किताब “विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)” प्रथम प्रेम की अनुभूतियों जैसी ही है।

सब कुछ जो पहला होता है वैसा दूसरा कहाँ हो सकता है। पहला अक्षर, पहला चला पद, पहला निवाला, पहला मित्र, पहला गुरु, पहली परीक्षा, पहला प्रेम, पहला धोका, पहली नौकरी, पहली तकरार और पहली किताब। जो भाव, जो अनुभव हर प्रथम क्रियाकलाप से प्राप्त होते हैं वो दूसरे में वैसे कहाँ रह जाते हैं। मैं भी जब अपनी पहली किताब लिख रही थी तो सब कुछ ऐसा ही था। पहला और अकल्पनीय, सुंदर और मनमोहक, अदभुत और आनंदायक।

2017 में जब मैंने विश्वास और मैं” की कहानी लिखनी आरंभ की तो मेरे दिलो-दिमाग में ये कहीं नहीं था कि मैं इसे एक किताब का रूप दे कर प्रकाशित कराने के बारे में भी सोचूँगी। सच कहूँ तो किताबें पढ़ने का भी मुझे कभी कोई शौक नहीं था। फिर जाने कैसे मैंने दिव्य प्रकाश दुबे जी कि दूसरी किताब “मुसाफिर कैफ़े” पढ़ डाली। उस कहानी और लेखक से इतना प्रभावित हुई कि उनकी लिखी हुई बात “हर किसी के पास एक कहानी होती है जो उसे खुद ही लिखनी चाहिए” भीतर तक घर गयी और ऐसे “विश्वास और मैं” की नींव पड़ी।

फिर मैंने और कई किताबें पढ़ी और पढ़ने के साथ-साथ लिखने का सिलसिला भी आरंभ हो चला। कहते हैं अक्सर कथा (फिकशन), कथा नहीं होती। कथा के आवरण में कहीं तो कैसे भी घटा सत्य होता है। जिसे सत्य की तरह उजागर ना किया जा सकता हो तो कथा का आवरण ओढ़ा कर एक काल्पनिक संसार की रचना कर दी जाती है। पर जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि सब के पास अपनी एक कहानी होती है और असल में कहानियाँ हमारे चारों तरफ बस बिखरी सी पड़ी हैं। देर है तो बस किसी के उन्हें समेट कर एक सार कर देने की। कहानियाँ असल में जीवन का हिस्सा ही तो हैं। हर किताब की कहानी कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो जी ही रहा है। बस नाम, परिवेश और शहर बदल जाता है। भाव कभी नहीं बदलते और कहानी...वो भी कभी नहीं बदलती। बस कुछ ज़्यादा या कम हो सकता है।

“विश्वास और मैं” कि सबसे बड़ी खूबी है “मैं” यानी इसकी नायिका। जो अपनी कहानी खुद कह रही है पर अपना नाम उसे बार-बार लिए जाने भाता नहीं। इसलिए वो स्वयं को “मैं” कह कर ही संबोधित करती है और उसका नाम पूरी किताब में मात्र दो बार लिया जाता है। वो भी तब, जब उसकी सबसे अधिक अवश्यकता है। छोटे से एक शहर के दो साधारण से प्रेमी जो प्रेम, मित्रता और समाज के बीच झूलते-झूलते एक अनजाने सफर पर अग्रसर हैं और बिना किसी आशा-अपेक्षा के चलते चले जाते हैं। “विश्वास” व्यक्तित्व का कमजोर है तो “मैं” उच्च्श्रंखल है। “विश्वास” पारिस्थतियों से भागता है तो “मैं” को हर हाल में उनका सामना करने की आदत है। “विश्वास” को खुद पर विश्वास नहीं है और “मैं” उस पर से अपना विश्वास कभी खोना नहीं चाहती।

ऐसे ही अनगिनत भावनात्मक उतार-चढ़ावों से गुजरते विश्वास और मैं की कहानी पढ़ने के लिए आप ये किताब Amazon, Shopclues, Flipkart aur Bluerose Store से खरीद कर पढ़ सकते हैं। सभी लिंक्स लेख के अंत में आपको मिलेंगे। किताब खरीदिए, पढ़िये, अपनी प्रतिक्रिया दीजिये। अच्छी लगे तो किसी को उपहार में भी दीजिये। कहानी जैसी भी लगे प्रशंसा और आलोचना दोनों का ही स्वागत रहेगा। आप मुझे फेसबुक और इंस्टाग्राम पर फॉलो और संपर्क कर सकते हैं। साथ ही मेरा यू ट्यूब चेनल सबस्क्राइब कर सकते हैं। जिस पर मैं कभी-कभी अपनी 1 मिनट की लघु कविताओं का पाठ करती हूँ। Amazon और Goodreads पर किताब को अपनी रेटिंग्स और रिवियु अवश्य दें। चाहें वो रिव्यू एक ही पंक्ति का क्यूँ ना हो। आपकी प्रतिक्रिया की एक पंक्ति भी मेरा उत्साहवर्धन कर सकती है।



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Video trailer of book- https://youtu.be/PVrUYmDDDV4


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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

दिल्ली को दिल्ली बनाने वाली राजनीतिज्ञ- शीला दीक्षित


20 जुलाई 2019 को एक चेतना सुप्त हो गई। सदा-सदा के लिए। एक ऐसी चेतना जिसने देश की धड़कन राजधानी दिल्ली को दिल्ली बनाया। दिल्ली की काया पलट करने वाली, उसे एक सुंदर, प्रगतिशील शहर बनाने वाली और उसके राजधानी के सम्मान में चार-चाँद लगाने वाली कद्दावर नेत्री श्रीमति शीला दीक्षित 81 वर्ष की आयु में इस संसार को छोड़ कर चली गईं।

31 मार्च 1938 को कपूरथला, पंजाब में जन्मी शीला कपूर एक पंजाबी खत्री परिवार की बेटी थीं। उन्होने अपनी शिक्षा दिल्ली के कॉन्वेट और जीसस एंड मैरी स्कूल से पूरी की और फिर बाद में मिरान्डा हाउस से स्नाकोत्तर उपाधि गृहण की। 1970 के दशक में वो ना केवल दीक्षित यंग विमिन एसोसियशन की अधयक्ष रहीं बल्कि उन्होने कामकाजी महिलाओं के छात्रावासों की स्थापना में भी योगदान किया। 1978 से 1984 तक वह कपड़ा निर्यातकर्ता संघ की कार्यपालिक सचिव भी रहीं। शीला जी का विवाह प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी तथा पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल उमा शंकर दीक्षित से हुआ था। वे मूलतः उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के उगु गाँव के निवासी थे और भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। उनका देहांत एक रेल यात्रा के दौरान हृदयघात से हुआ था। शीला और विनोद जी की दो संताने हैं जिनमें एक पुत्र और एक पुत्री है।

1984 के आम चुनावों में शीला जी ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से कॉंग्रेस के टिकिट पर चुनाव लड़ा और जीता भी। अपनी विजय के बाद उनके कार्यकाल के दौरान जो प्रमुख कार्य थे वो थे कन्नौज को हरदोई से जोड़ने के लिए गंगा नदी पर पुल का निर्माण, तिरवा में दूरदर्शन रिले सेंटर की स्थापना, टेलेफोन एक्सचेंज का मैनुअल से औटोमेटिक में परिवर्तन तथा लाख बहोसी पक्षी विहार एवं मकरंदनगर में विनोद दीक्षित अस्पताल का निर्माण। 

स्वतन्त्रता के चालीसवें वर्ष में और पंडित नेहरू की शताब्दी के कार्यान्वन के लिए समिति की अध्यक्षता शीला जी ने अपने संसद सदस्य कार्यकाल के दौरान की और लोक सभा की एस्टिमेट्स समिति के साथ भी कार्य किया। 1984 से 1989 तक उन्होने संयुक्त राष्ट्र आयोग में महिलाओं की स्थिति पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। 1986 से 1989 तक वो तत्कालीन राजीव गांधी मंत्रिपरिषद का हिस्सा भी रहीं। 1989 के आम चुनावों में जनता पार्टी के छोटे लाल यादव से हारने के पश्चात, महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन के नेत्रत्व करने के कारण उन्हें 1990 में 23 दिनों के लिए उनके 82 सहयोगियों के साथ जेल में डाल दिया गया।

1998 में शीला जी को दिल्ली प्रदेश कॉंग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाया गया और उसी वर्ष हुए आम चुनावों में वे पूर्वी दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी की रूप में उभर कर आयीं परंतु उन्हें भारतीय जनता पार्टी के लाल बिहारी तिवारी के सामने हार मिली। उन्होने फिर 1998 में दिल्ली के विधान सभा चुनाव का रुख किया और गोल मार्किट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी के कीर्ति आज़ाद को पराजित किया और शीला दीक्षित मदन लाल खुराना की उत्तराधिकारी के रूप में दिल्ली की छठी और दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनी। 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी पूनम आज़ाद और 2008 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के भाजपा प्रत्याशी विजय जौली को पराजित कर वो लगातार 3 कार्यकाल यानी कि पूरे 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। इसके उपरांत 2014 में उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया गया जिससे उन्होने कुछ ही समय में इस्तीफा दे दिया।

दिल्ली की चौड़ी और अच्छी सड़कें, फ्लाईओवर्स, ट्रेफिक संतुलन तकनीकें, मेट्रो ट्रेन, सी.एन.जी. स्कूलों और अस्पतालों के लिए काम और दिल्ली की हरियाली सब कुछ शीला जी के ही नाम है। उन्हीं की वजह से दिल्ली आज दिल्ली है। वो शीला जी ही थीं जिन्होंने लड़कियों को स्कूल में लाने के लिए सेनेटरी नैप्किंस बटवाए थे। दिल्ली में कई विश्वविद्यालय खुलवाए और ट्रिपल आईआईटी की शुरुआत भी की। यूं ही तो दिल्ली की जनता ने उन्हें लगातार तीन बार मुख्यमंत्री नहीं चुन लिया। शीला जी इन्दिरा गांधी स्मारक ट्रस्ट की सचिव भी रहीं। जो शांति, निशस्त्रीकरण एवं विकास के लिए इन्दिरा गांधी पुरस्कार प्रदान करता है और विश्वव्यापी विषयों पर सम्मेलन आयोजित करता है। इन्हीं के कार्यकाल के दौरान इस ट्रस्ट के द्वारा एक पर्यावरण केंद्र भी खोला गया। ग्रामीण रंगशाला और नाट्यशालाओं के विकास का श्रेय भी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय शीला दीक्षित को ही जाता है। शीला जी पर दो बार भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे पर वह उससे साफ उभर कर बाहर आयीं और आरोप आगे चल कर खारिज हुए।

2010 में शीला जी को भारत-ईरान सोसाइटी द्वरा दारा शिकोह पुरस्कार और 2013 में उत्कृष्ट सार्वजनिक सेवा के लिए ऑल लेडीज लीग द्वारा दिल्ली विमिन ऑफ द डिकेड अचिवर्ज़ पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। शीला दीक्षित एक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और जुझारू स्त्री व राजनीतिज्ञ थीं। दिल्ली के लिए उन्होने जो कुछ किया वो भारत के राजनीतिक इतिहास में सदा-सदा स्मरण किया जाएगा और दिल्ली की जनता उन्हें कभी नहीं भूलेगी।