हर
लेखक के लिए उसकी पहली किताब पहले प्रेम के समान होती है। प्रथम प्रेम के समान निश्छलता, कोमलता, आधा-अधूरा सा पन, अनगढ़ सा कुछ अपने अंदर समेटे हुए। मेरे लिए भी मेरी पहली
किताब “विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)” प्रथम प्रेम की अनुभूतियों जैसी
ही है।
सब
कुछ जो पहला होता है वैसा दूसरा कहाँ हो सकता है। पहला अक्षर, पहला चला पद, पहला निवाला, पहला मित्र, पहला गुरु,
पहली परीक्षा, पहला प्रेम, पहला धोका, पहली नौकरी, पहली तकरार और पहली किताब। जो भाव, जो अनुभव हर प्रथम क्रियाकलाप से प्राप्त होते हैं वो
दूसरे में वैसे कहाँ रह जाते हैं। मैं भी जब अपनी पहली किताब लिख रही थी तो सब कुछ
ऐसा ही था। पहला और अकल्पनीय, सुंदर और मनमोहक, अदभुत और आनंदायक।
2017
में जब मैंने “विश्वास और मैं” की कहानी लिखनी आरंभ की तो
मेरे दिलो-दिमाग में ये कहीं नहीं था कि मैं इसे एक किताब का रूप दे कर प्रकाशित कराने
के बारे में भी सोचूँगी। सच कहूँ तो किताबें पढ़ने का भी मुझे कभी कोई शौक नहीं था।
फिर जाने कैसे मैंने ‘दिव्य प्रकाश दुबे’ जी कि दूसरी किताब “मुसाफिर कैफ़े” पढ़ डाली। उस कहानी और
लेखक से इतना प्रभावित हुई कि उनकी लिखी हुई बात “हर किसी के पास एक कहानी होती है
जो उसे खुद ही लिखनी चाहिए” भीतर तक घर गयी और ऐसे “विश्वास और मैं” की नींव पड़ी।
फिर
मैंने और कई किताबें पढ़ी और पढ़ने के साथ-साथ लिखने का सिलसिला भी आरंभ हो चला। कहते
हैं अक्सर कथा (फिकशन), कथा नहीं होती। कथा के आवरण में कहीं तो कैसे
भी घटा सत्य होता है। जिसे सत्य की तरह उजागर ना किया जा सकता हो तो कथा का आवरण ओढ़ा
कर एक काल्पनिक संसार की रचना कर दी जाती है। पर जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि सब के पास
अपनी एक कहानी होती है और असल में कहानियाँ हमारे चारों तरफ बस बिखरी सी पड़ी हैं। देर
है तो बस किसी के उन्हें समेट कर एक सार कर देने की। कहानियाँ असल में जीवन का हिस्सा
ही तो हैं। हर किताब की कहानी कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो जी ही रहा है। बस नाम, परिवेश और शहर बदल जाता है। भाव कभी नहीं बदलते और कहानी...वो
भी कभी नहीं बदलती। बस कुछ ज़्यादा या कम हो सकता है।
“विश्वास
और मैं” कि सबसे बड़ी खूबी है “मैं” यानी इसकी नायिका। जो अपनी कहानी खुद कह रही है
पर अपना नाम उसे बार-बार लिए जाने भाता नहीं। इसलिए वो स्वयं को “मैं” कह कर ही संबोधित
करती है और उसका नाम पूरी किताब में मात्र दो बार लिया जाता है। वो भी तब, जब उसकी सबसे अधिक अवश्यकता है। छोटे से एक शहर के दो
साधारण से प्रेमी जो प्रेम, मित्रता और समाज के बीच झूलते-झूलते एक अनजाने
सफर पर अग्रसर हैं और बिना किसी आशा-अपेक्षा के चलते चले जाते हैं। “विश्वास” व्यक्तित्व
का कमजोर है तो “मैं” उच्च्श्रंखल है। “विश्वास” पारिस्थतियों से भागता है तो “मैं”
को हर हाल में उनका सामना करने की आदत है। “विश्वास” को खुद पर विश्वास नहीं है और
“मैं” उस पर से अपना विश्वास कभी खोना नहीं चाहती।
ऐसे
ही अनगिनत भावनात्मक उतार-चढ़ावों से गुजरते विश्वास और मैं की कहानी पढ़ने के लिए आप
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