शनिवार, 27 जुलाई 2019

मेरी पहली किताब- विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)


हर लेखक के लिए उसकी पहली किताब पहले प्रेम के समान होती है। प्रथम प्रेम के समान निश्छलता, कोमलता, आधा-अधूरा सा पन, अनगढ़ सा कुछ अपने अंदर समेटे हुए। मेरे लिए भी मेरी पहली किताब “विश्वास और मैं (अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता)” प्रथम प्रेम की अनुभूतियों जैसी ही है।

सब कुछ जो पहला होता है वैसा दूसरा कहाँ हो सकता है। पहला अक्षर, पहला चला पद, पहला निवाला, पहला मित्र, पहला गुरु, पहली परीक्षा, पहला प्रेम, पहला धोका, पहली नौकरी, पहली तकरार और पहली किताब। जो भाव, जो अनुभव हर प्रथम क्रियाकलाप से प्राप्त होते हैं वो दूसरे में वैसे कहाँ रह जाते हैं। मैं भी जब अपनी पहली किताब लिख रही थी तो सब कुछ ऐसा ही था। पहला और अकल्पनीय, सुंदर और मनमोहक, अदभुत और आनंदायक।

2017 में जब मैंने विश्वास और मैं” की कहानी लिखनी आरंभ की तो मेरे दिलो-दिमाग में ये कहीं नहीं था कि मैं इसे एक किताब का रूप दे कर प्रकाशित कराने के बारे में भी सोचूँगी। सच कहूँ तो किताबें पढ़ने का भी मुझे कभी कोई शौक नहीं था। फिर जाने कैसे मैंने दिव्य प्रकाश दुबे जी कि दूसरी किताब “मुसाफिर कैफ़े” पढ़ डाली। उस कहानी और लेखक से इतना प्रभावित हुई कि उनकी लिखी हुई बात “हर किसी के पास एक कहानी होती है जो उसे खुद ही लिखनी चाहिए” भीतर तक घर गयी और ऐसे “विश्वास और मैं” की नींव पड़ी।

फिर मैंने और कई किताबें पढ़ी और पढ़ने के साथ-साथ लिखने का सिलसिला भी आरंभ हो चला। कहते हैं अक्सर कथा (फिकशन), कथा नहीं होती। कथा के आवरण में कहीं तो कैसे भी घटा सत्य होता है। जिसे सत्य की तरह उजागर ना किया जा सकता हो तो कथा का आवरण ओढ़ा कर एक काल्पनिक संसार की रचना कर दी जाती है। पर जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि सब के पास अपनी एक कहानी होती है और असल में कहानियाँ हमारे चारों तरफ बस बिखरी सी पड़ी हैं। देर है तो बस किसी के उन्हें समेट कर एक सार कर देने की। कहानियाँ असल में जीवन का हिस्सा ही तो हैं। हर किताब की कहानी कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो जी ही रहा है। बस नाम, परिवेश और शहर बदल जाता है। भाव कभी नहीं बदलते और कहानी...वो भी कभी नहीं बदलती। बस कुछ ज़्यादा या कम हो सकता है।

“विश्वास और मैं” कि सबसे बड़ी खूबी है “मैं” यानी इसकी नायिका। जो अपनी कहानी खुद कह रही है पर अपना नाम उसे बार-बार लिए जाने भाता नहीं। इसलिए वो स्वयं को “मैं” कह कर ही संबोधित करती है और उसका नाम पूरी किताब में मात्र दो बार लिया जाता है। वो भी तब, जब उसकी सबसे अधिक अवश्यकता है। छोटे से एक शहर के दो साधारण से प्रेमी जो प्रेम, मित्रता और समाज के बीच झूलते-झूलते एक अनजाने सफर पर अग्रसर हैं और बिना किसी आशा-अपेक्षा के चलते चले जाते हैं। “विश्वास” व्यक्तित्व का कमजोर है तो “मैं” उच्च्श्रंखल है। “विश्वास” पारिस्थतियों से भागता है तो “मैं” को हर हाल में उनका सामना करने की आदत है। “विश्वास” को खुद पर विश्वास नहीं है और “मैं” उस पर से अपना विश्वास कभी खोना नहीं चाहती।

ऐसे ही अनगिनत भावनात्मक उतार-चढ़ावों से गुजरते विश्वास और मैं की कहानी पढ़ने के लिए आप ये किताब Amazon, Shopclues, Flipkart aur Bluerose Store से खरीद कर पढ़ सकते हैं। सभी लिंक्स लेख के अंत में आपको मिलेंगे। किताब खरीदिए, पढ़िये, अपनी प्रतिक्रिया दीजिये। अच्छी लगे तो किसी को उपहार में भी दीजिये। कहानी जैसी भी लगे प्रशंसा और आलोचना दोनों का ही स्वागत रहेगा। आप मुझे फेसबुक और इंस्टाग्राम पर फॉलो और संपर्क कर सकते हैं। साथ ही मेरा यू ट्यूब चेनल सबस्क्राइब कर सकते हैं। जिस पर मैं कभी-कभी अपनी 1 मिनट की लघु कविताओं का पाठ करती हूँ। Amazon और Goodreads पर किताब को अपनी रेटिंग्स और रिवियु अवश्य दें। चाहें वो रिव्यू एक ही पंक्ति का क्यूँ ना हो। आपकी प्रतिक्रिया की एक पंक्ति भी मेरा उत्साहवर्धन कर सकती है।



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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

दिल्ली को दिल्ली बनाने वाली राजनीतिज्ञ- शीला दीक्षित


20 जुलाई 2019 को एक चेतना सुप्त हो गई। सदा-सदा के लिए। एक ऐसी चेतना जिसने देश की धड़कन राजधानी दिल्ली को दिल्ली बनाया। दिल्ली की काया पलट करने वाली, उसे एक सुंदर, प्रगतिशील शहर बनाने वाली और उसके राजधानी के सम्मान में चार-चाँद लगाने वाली कद्दावर नेत्री श्रीमति शीला दीक्षित 81 वर्ष की आयु में इस संसार को छोड़ कर चली गईं।

31 मार्च 1938 को कपूरथला, पंजाब में जन्मी शीला कपूर एक पंजाबी खत्री परिवार की बेटी थीं। उन्होने अपनी शिक्षा दिल्ली के कॉन्वेट और जीसस एंड मैरी स्कूल से पूरी की और फिर बाद में मिरान्डा हाउस से स्नाकोत्तर उपाधि गृहण की। 1970 के दशक में वो ना केवल दीक्षित यंग विमिन एसोसियशन की अधयक्ष रहीं बल्कि उन्होने कामकाजी महिलाओं के छात्रावासों की स्थापना में भी योगदान किया। 1978 से 1984 तक वह कपड़ा निर्यातकर्ता संघ की कार्यपालिक सचिव भी रहीं। शीला जी का विवाह प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी तथा पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल उमा शंकर दीक्षित से हुआ था। वे मूलतः उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के उगु गाँव के निवासी थे और भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। उनका देहांत एक रेल यात्रा के दौरान हृदयघात से हुआ था। शीला और विनोद जी की दो संताने हैं जिनमें एक पुत्र और एक पुत्री है।

1984 के आम चुनावों में शीला जी ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से कॉंग्रेस के टिकिट पर चुनाव लड़ा और जीता भी। अपनी विजय के बाद उनके कार्यकाल के दौरान जो प्रमुख कार्य थे वो थे कन्नौज को हरदोई से जोड़ने के लिए गंगा नदी पर पुल का निर्माण, तिरवा में दूरदर्शन रिले सेंटर की स्थापना, टेलेफोन एक्सचेंज का मैनुअल से औटोमेटिक में परिवर्तन तथा लाख बहोसी पक्षी विहार एवं मकरंदनगर में विनोद दीक्षित अस्पताल का निर्माण। 

स्वतन्त्रता के चालीसवें वर्ष में और पंडित नेहरू की शताब्दी के कार्यान्वन के लिए समिति की अध्यक्षता शीला जी ने अपने संसद सदस्य कार्यकाल के दौरान की और लोक सभा की एस्टिमेट्स समिति के साथ भी कार्य किया। 1984 से 1989 तक उन्होने संयुक्त राष्ट्र आयोग में महिलाओं की स्थिति पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। 1986 से 1989 तक वो तत्कालीन राजीव गांधी मंत्रिपरिषद का हिस्सा भी रहीं। 1989 के आम चुनावों में जनता पार्टी के छोटे लाल यादव से हारने के पश्चात, महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन के नेत्रत्व करने के कारण उन्हें 1990 में 23 दिनों के लिए उनके 82 सहयोगियों के साथ जेल में डाल दिया गया।

1998 में शीला जी को दिल्ली प्रदेश कॉंग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाया गया और उसी वर्ष हुए आम चुनावों में वे पूर्वी दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी की रूप में उभर कर आयीं परंतु उन्हें भारतीय जनता पार्टी के लाल बिहारी तिवारी के सामने हार मिली। उन्होने फिर 1998 में दिल्ली के विधान सभा चुनाव का रुख किया और गोल मार्किट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी के कीर्ति आज़ाद को पराजित किया और शीला दीक्षित मदन लाल खुराना की उत्तराधिकारी के रूप में दिल्ली की छठी और दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनी। 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी पूनम आज़ाद और 2008 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के भाजपा प्रत्याशी विजय जौली को पराजित कर वो लगातार 3 कार्यकाल यानी कि पूरे 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। इसके उपरांत 2014 में उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया गया जिससे उन्होने कुछ ही समय में इस्तीफा दे दिया।

दिल्ली की चौड़ी और अच्छी सड़कें, फ्लाईओवर्स, ट्रेफिक संतुलन तकनीकें, मेट्रो ट्रेन, सी.एन.जी. स्कूलों और अस्पतालों के लिए काम और दिल्ली की हरियाली सब कुछ शीला जी के ही नाम है। उन्हीं की वजह से दिल्ली आज दिल्ली है। वो शीला जी ही थीं जिन्होंने लड़कियों को स्कूल में लाने के लिए सेनेटरी नैप्किंस बटवाए थे। दिल्ली में कई विश्वविद्यालय खुलवाए और ट्रिपल आईआईटी की शुरुआत भी की। यूं ही तो दिल्ली की जनता ने उन्हें लगातार तीन बार मुख्यमंत्री नहीं चुन लिया। शीला जी इन्दिरा गांधी स्मारक ट्रस्ट की सचिव भी रहीं। जो शांति, निशस्त्रीकरण एवं विकास के लिए इन्दिरा गांधी पुरस्कार प्रदान करता है और विश्वव्यापी विषयों पर सम्मेलन आयोजित करता है। इन्हीं के कार्यकाल के दौरान इस ट्रस्ट के द्वारा एक पर्यावरण केंद्र भी खोला गया। ग्रामीण रंगशाला और नाट्यशालाओं के विकास का श्रेय भी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय शीला दीक्षित को ही जाता है। शीला जी पर दो बार भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे पर वह उससे साफ उभर कर बाहर आयीं और आरोप आगे चल कर खारिज हुए।

2010 में शीला जी को भारत-ईरान सोसाइटी द्वरा दारा शिकोह पुरस्कार और 2013 में उत्कृष्ट सार्वजनिक सेवा के लिए ऑल लेडीज लीग द्वारा दिल्ली विमिन ऑफ द डिकेड अचिवर्ज़ पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। शीला दीक्षित एक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और जुझारू स्त्री व राजनीतिज्ञ थीं। दिल्ली के लिए उन्होने जो कुछ किया वो भारत के राजनीतिक इतिहास में सदा-सदा स्मरण किया जाएगा और दिल्ली की जनता उन्हें कभी नहीं भूलेगी।

गुरुवार, 6 जून 2019

ललित कुमार की जिंदगी से थोड़ा विटामिन ले कर...


यूँ तो हम सुबह से उठ कर दिन भर में अनेकों झूठ बोलते हैं, पर संसार में कुछ झूठ व्यावहारिक भी होते हैं और उनमें से सबसे बड़ा झूठ है “मैं तुम्हारा दर्द समझता हूँ।“ कहने वाला भी जानता है और सुनने वाला भी कि ये एक झूठ ही है फिर भी जाने कितनी बार कहा जाता है और सुना जाता है। ऐसा नहीं कि हम दर्द नहीं समझते पर सच ये भी है कि हम किसी और का दर्द नहीं समझ सकते।

ललित कुमार की पहली किताब “विटामिन जिंदगी” उनके जीवन की संघर्ष गाथा है जिसे उन्होंने शब्दबद्ध किया है। ऐसा संघर्ष जो उनके जीवन में चार वर्ष की आयु से आरंभ हुआ और लगातार चलता ही आ रहा है। इस किताब को अच्छी, बुरी या ठीक है कि श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। ये किताब केवल एक कहानी नहीं है, ये जीवन है ललित कुमार का और किसी के जीवन पर प्रतिक्रिया देने वाले हम कौन हो सकते हैं।

ये कहानी उनकी बैसाखियों के शब्दों से आरंभ होती है जो उनके साथ बचपन से हैं। उन्हीं के साथ बड़ी हुई हैं और बराबर साथ निभाती चली आ रही हैं। चार वर्ष की आयु में एक हृष्ट-पुष्ट बालक अचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ता है और पोलियो की चपेट में आ कर अपने जीवन का संतुलन खो बैठता है। ललित कुमार की शारीरिक पीड़ा, मानसिक पीड़ा, आर्थिक पीड़ा, सामाजिक पीड़ा पढ़ते हुए कई स्थानों पर मैं फफक पड़ी। ऐसा नहीं कि मुझे उनके दर्द का एहसास हो पाया था बल्कि ये स्थान वो थे जहां उन्होने हर पीड़ा से लड़ कर, जूझ  कर अपने जीवन में कोई उपलब्धि हासिल की थी।   

पोलियो से लड़ना, शरीर के निचले भाग का बेजान हो जाना, कमर से नीचे के हिस्से का आड़ा-टेड़ा हो जाना, हर प्रकार के उपचार की पीड़ा में भयंकर दर्द को झेलना, चौपाया बन कर घसिटना, केलीपर की तकलीफ झेलना, और उस पर लगातार सहपाठियों, समाज यहाँ तक कि अध्यापकों के लिए उपहास पात्र बने रहना। ये सब इस किताब में ललित कुमार की ज़ुबानी पढ़ने के बाद एक बार नहीं अपितु कई-कई बार मेरे मन में ये विचार आते रहे कि हम अक्सर कितनी शीघ्रता से निराश हो जाते हैं, अवसाद में चले जाते हैं, खुद को हारा हुआ महसूस करते हैं। जबकि हमारे कष्ट या अभाव किसी और की तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं हैं। ललित जी ने प्रत्येक पीड़ा और अभाव के साथ संघर्ष करते हुए न केवल स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया बल्कि अब वो राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित एक रोल मॉडल भी हैं।

ललित जी की कहानी में सबसे अच्छी और सुखद बात है कि उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य ने उनके प्रति जो समर्पण दिखाया और प्रेम प्रदर्शित किया वो यदि उनके साथ नहीं होता तो उनके जीवन में कुछ नहीं होता। जब जीवन में कोई आशा बाकी नहीं रह जाती तो माता-पिता भी एक स्थान पर आकर थक जाते हैं, अन्य परिवारिजन भी साथ छोड़ देते हैं। पर ललित जी के साथ ऐसा नहीं हुआ। इस बात के लिए वो ईश्वर का बहुत धन्यवाद करते हैं कि उन्हें ऐसा परिवार मिला जो उनकी पीड़ा में उनके साथ रहा। बस पूरी बात में मैं एक विचार से सशंकित रही कि यदि ललित बेटा ना हो कर बेटी होते तो भी क्या उनका जीवन ऐसा ही होता। मैं उनके परिवार पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रही हूँ। बस ये मेरी आशंका है क्यूंकी मैंने भी कई बेटियों को ऐसी तकलीफ़ में देखा है जहाँ उनके घरवालों ने उन्हें विकलांग आश्रम में या सरकार के सहारे छोड़ रखा है। चूँकि ये सत्य है कि बेटी का जीवन और अधिक कठिन होता और यदि परिवार आर्थिक तंगी से गुज़रता हो तो उसके सामने रास्ते बंद हो जाते हैं।

ललित जी के जीवन से सीखने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि उन्होंने अपने शरीर की अक्षमता के आगे अपने मस्तिष्क को इस प्रकार मज़बूत किया कि न केवल सतत अधध्यन करते रहे, अच्छे नंबरों से पास होते रहे और कभी भी किसी से भी सहारे की आकांक्षा नहीं की। कई किलोमीटरों पैदल चलना, बैसाखी की चोट खाते रहना, गिरना फिर उठना और चल देना। विग्कलांगता के सरकारी लाभ न उठाना, व्हीलचेयर का प्रयोग ना करने और अधिक से अधिक आत्मनिर्भरता लाने के उनके कठोर प्रयास उनके जीवन की गाथा को प्रेरणादायक बनाते हैं। यू.एन.ओ से जुड़ना और फिर सोवियत संघ के लिए भी कार्य करना, कई देश घूम आना और चीन की दीवार पर भी अपनी उन्हीं बैसाखियों के साथ चढ़कर लौट आना, एक स्वप्न जैसा ही है, जो ललित कुमार ने न केवल देखा अपितु जिया भी।

हालांकि इस किताब में और बहुत कुछ है पर यदि सब कुछ लिखने बैठी तो एक और किताब बन जाएगी। इससे बेहतर है कि मैं अपनी बात यहीं ख़त्म करूँ। किताब के आरंभ में ललित कुमार ने लिखा है कि उन्हें लगता था कि उनके जीवन की गाथा कोई क्यूँ पढ़ेगा। सोच उचित है। पर अब जब ये जीवन गाथा शब्दबद्ध हो कर किताब के रूप में प्रकाशित हो चुकी है और जो भी इसे पढ़ रहा है उसके लिए ये प्रेरणादायक सिद्ध होगी। छोटी से छोटी वस्तु और घटनाओं का आंकलन करना जीवन के लिए कितना लाभदायक हो सकता है ये आप इस किताब को पढ़ कर समझ पाएंगे।

तो बस ललित कुमार की जिंदगी से थोड़ा विटामिन लीजिये और जीवन जीना सीखिये........

नोट: ये किताब का रिवियु नहीं है ये बस मेरे विचार हैं जो मैंने इस किताब को पढ़ते वक़्त अनुभव किए। ये किताब असल में ललित जी का जीवन है और इसका रिवियु करने की क्षमता किसी में नहीं और होनी भी नहीं चाहिए। किताब को amazon.in से खरीद कर पढ़ा जा सकता है।


बुधवार, 30 जनवरी 2019

सोलमेट-ट्विन फ्लेम कनेकशन


ये वर्ल्ड है ना वर्ल्ड यहाँ दो तरह के लोग होते हैं। एक वो जो पुनर्जन्म में यकीन रखते हैं और दूसरे वो जो पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखते। मैं उन पहले तरह के लोगों में से हूँ जो पुनर्जन्म में भी यकीन रखते हैं और सोलमेट कनेकशन की सत्यता के लिए किसी प्रामाणिकता की अवश्यकता नहीं समझते। सोलमेट यानी एक ऐसा साथी जिससे आत्मिक जुड़ाव का आभास हो। जिसकी प्रसन्नता, दुख और हर भाव को उसी प्रकार महसूस किया जा सके जैसे वो खुद करता है। सुनने में, कहने में अजीब है और अविश्वसनीय भी पर असंभव नहीं।

ये सोलमेट कौन होते हैं? सोलमेट को केवल प्रेमी-प्रेमिका और पति/पत्नी के संबंध तक सीमित ना समझें। सोलमेट किसी संबंध विशेष की श्रेणी में रखे जाने के लिए बाध्य नहीं है। पिता-पुत्री, भाई-बहन, दो मित्र, शिक्षक-गुरु या कोई भी दो या दो से अधिक लोग हो सकते हैं। हम अक्सर यही समझते हैं कि जिससे हमें आकर्षण या शारीरिक प्रेम है या जिससे हमारा विवाह हुआ है वो हमारा सोलमेट है या हो सकता है। पर ये सोच सिरे से गलत है।

सोलमेट की सही परिभाषा क्या है? जब हम एक जीवन पूरा कर के मृत्यु पा कर अपने पुराने शरीर से विलग होते हैं तो हमारी आत्मा एक नए जीवन की तलाश करती है। ये पूरी तरह से हमारी ही आत्मा का निर्णय होता है कि उसे किस प्रकार का जीवन अपने लिए चुनना है। आपको विश्वास करने में अवश्य ही परेशानी होगी पर ये ही सत्य है। किसी नए शरीर को प्राप्त करने से पहले आत्मा स्वयं अपना जीवन, अपना परिवार और अपने माता-पिता चुनती है। पिछले जीवन में जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त करना अधूरा रह गया उसे पूरा करने के लिए ही आत्मा दूसरा जन्म लेती है और वो नया जीवन कठिनाइयों या सुविधाओं में व्यतीत करेगी ये पूरी तरह उस आत्मा के निर्णय पर निर्भर होता है। जितना कठिन और कष्टमय जीवन उतना ही आत्मिक उत्थान तथा मोक्ष की राह पर बढ़ने के लिए एक और कदम। इसी प्रक्रिया में कई बार हमारी आत्मा विभाजित हो जाती है। एक, दो या तीन या फिर कई अन्य टुकड़ों में भी। जब एक आत्मा विभाजित हो कर दो या अधिक हो जाती है तो उस आत्मा के बंटे हुए अंशों को एक दूसरे से जुड़ने की सदा सर्वदा आस और अपेक्षा रहती है। यही है सोलमेट या ट्विन फ्लेम कनेकशन। अब वो विभाजित अंश कहाँ और किस रूप में जीवन लेते हैं आत्मा को इस बात का ज्ञान नहीं होता। इसी कारण हम जीवन भर अपूर्णता का अनुभव करते हुए पूर्ण होने की लालसा में असंतुष्ट और विचलित रहते हैं।

कभी महसूस किया है सड़क चलते किसी अजनबी को आप गौर से देखते रह गए हों और लाख प्रयास के बाद भी उसे पहचान ना पाये हों। असल में हम उस अजनबी को नहीं उसकी आँखों को पहचानने का प्रयास करते हैं। हमें नहीं पता कि आज इस जन्म में हम हैं तो कितने और जन्म हम पहले ले चुके हैं। उन जन्मों में हमारा किस-किससे संबंध था। कोई मित्र, कोई संबंधी, शिक्षक, या बस कोई परिचित ही। पर अगर हमें कुछ याद रह जाता है तो उनकी आँखें। आँखें एक ऐसा माध्यम है जो कभी नहीं बदलती। किसी भी जन्म में चाहे कोई भी रूप या लिंग में हम पैदा हुए हों आँखें हमेशा वैसी ही रहती हैं। इसी कारण यदा-कदा किसी अपरिचित को देख या मिल कर हमें ऐसा आभास होता रहता है कि हम उसे जानते हैं। क्यूंकी असल में हम उसकी आँखें पहचानते हैं, पता नहीं किस जन्म से।

आवश्यक नहीं कि प्रत्येक जन्म में हमारा कोई सोलमेट हो ही और है भी तो हमें मिल ही जाए। कई बार ये सोल्मेट्स एक से अधिक भी होते हैं। जो हमारे जीवन में समय-समय पर प्रकट होते हैं और इनका कार्य या उद्देश्य पूर्ण होते ही ये अदृश्य हो जाते हैं। इस बात को समझने के लिए सरल सा उदहारण है हमारे मित्र। अक्सर बचपन में हमारे साथ ऐसा कोई ना कोई साथी अवश्य होता है जिससे हम बहुत गहराई से जुड़े होते हैं। उसे चोट लगने पर उसकी पीड़ा हम महसूस कर लेते हैं। उसकी प्रसन्नता में हम वैसे ही प्रसन्न होते है जैसे वो स्वयं होता है। फिर समय के साथ बड़े होते हुए हम उससे या वो हमसे दूर हो जाता है। पर उसकी स्मृतियाँ और उसके साथ बिताया हुआ प्रत्येक पल, उसके साथ महसूस की गयी प्रत्येक भावना हम जीवन भर अपने साथ ले कर चलते हैं।

अपने जीवन में हर किसी को प्रेम होता है। प्रेम से कोई बचा नहीं। किसी को एक बार किसी को दो बार और किसी को बारंबार। ऐसे ही किसी एक बार हम एक ऐसे साथी से मिलते हैं जो हमें अपनी आत्मा का अंश प्रतीत होता है। उसके साथ होना हमें संपूर्णता का एहसास कराता है। पर किन्हीं परिस्थितियों वश हम उसे अपना जीवन साथी नहीं बना पाते। इसका अर्थ ये नहीं कि वो हमारा सोलमेट नहीं था। अपने जीवन में अपने सोलमेट से ही विवाह कर पाना अत्यंत दुष्कर होता है। सब इतने भाग्यशाली नहीं होते। आत्मा ने जन्म लेने से पूर्व ही अपने जीवन का खाका खींच लिया होता है। अपने अंश से मिल कर उसके साथ जीवन बिताना है या नहीं या बस कुछ समय साथ रह कर आगे बढ़ जाना है, ये पूरी तरह उसी आत्मा के दोनों विभाजित अंशों की इक्षा और निर्णय पर निर्भर है।

कई बार सोल्मेट्स को मिलना ही होता है तो विवाह विच्छेद भी होते हैं और ये भी आवश्यक नहीं कि अगली बार विवाह करने पर वो हमारा सोलमेट ही होगा। लैला-मजनू, हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, मिर्ज़ा-साहिबन किसी भी अमर प्रेम कहानी को याद करें तो एक की सांस रुकते ही दूसरे की भी थम गयी थी। उनकी आत्मा अपने अंशों से मिल कर एक हो गयी थी और उसने फिर एक साथ इस संसार को छोड़ने का निर्णय लिया।

अनेकों बार ये आत्मिक संबंध शिक्षक और शिष्य के मध्य, माता-पुत्र, पिता-पुत्री आदि के मध्य भी होता है। कब किस जन्म में हम उनके साथ किस प्रकार संबन्धित रहे हैं हमें नहीं पता होता पर हमारी आत्मायें एक दूसरे को पहचानती है। उनके बीच का संबंध और जुड़ाव पहचानती हैं। इसी कारण हम अपने इस जीवन में अपरिचितों से भी घनिष्ट्ता बना लेते हैं जिसके पीछे कोई कारण नहीं होता।

(इन सभी तथ्यों का रिफरेंस डॉ. ब्राइन वीस की किताबों Many Lives Many Masters और Only Love IS Real से लिया गया है)


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